शैलबाला शतक देवी भगवती पराम्बा की स्तुति का अप्रतिम काव्य है। भोजपुरी भाषा की अद्भुत सामर्थ्य का काव्य है यह। कवि प्रेम नारायण पंकिल की मुग्ध करने वाली भाषा है यहाँ। नैसर्गिक काव्य-प्रतिभा ने इस काव्य को एक अनूठा स्वरूप दिया है। यह रचना तो जैसे लोकभाषा में दुर्गा सप्तशती का अवतरण हो। भोजपुरी ने एक विशिष्ट गौरव प्राप्त किया है। भोजपुरी को एक विशिष्ट प्रांजलता मिली है।
इस काव्य के प्रारम्भ में माता के रौद्र रूप का अष्टक विलसित है। किन्तु वहाँ क्रोध की आग नहीं करुणा का दूध बह रहा है। पंकिल की पीठ पर हँथोरि अम्ब फेरि फेरि, बाँटा कर दुलार दीन बेटे की चिरौरी है। अँचरा की ओट में छिपे शिशु के मन को रखने के लिए भवानी का यह लीला विलास अपने आप में शैलबाला शतक की नसों में फड़कता हुआ शोणित है।
यह शतक वह निर्माल्य है जिसे माँ ने अपने हाथों से अपने बेटे को खिलाया है। और शेष बचे वात्सल्य को अशेष कर दिया है। यह शतक उन्हीं के चरणों में इस भाव से अर्पित है कि १०८ माला के मनके माँ की आराधना पूरी करें। वे इस जपमालिका को अपने हाथों से स्फुरित और अभिमंत्रित करें। शैलबाला शतक वह शतदल है जो माँ के चरणों में बिछकर निहाल हो गया है।
नयनों के नीर से लिखी हुई पाती
पुस्तक की भूमिका में कवि की पंक्तियाँ सब कुछ व्यक्त करती हुई सी जान पड़ती हैं-
शैलबाला शतक नयनों के नीर से लिखी हुई पाती है। इसकी भाव भूमिका अनमिल है, अनगढ़ है, अप्रत्याशित है। इसका अवतरण भी आपातकालीन है। एक काल विशेष में ढुलमुल जिन्दगी को पटरी पर लाने में इस शतक की कारयित्री प्रतिभा अचूक रही।
यह रचना प्रकाशित है पुस्तकाकार। इसे स्वयं प्रकाशित किया है कवि ने। पोथी डॉट कॉम से प्रकाशित है यह। यहीं पर उपलब्ध भी है। इसे पढ़ने के लिए पोथी से लिया जा सकता है। लिंक यह रहा- शैलबाला शतक-स्तुति काव्य।